आचार्य श्रीराम शर्मा >> जन्म दिवसोत्सव कैसे मनाएँ ? जन्म दिवसोत्सव कैसे मनाएँ ?श्रीराम शर्मा आचार्य
|
6 पाठकों को प्रिय 430 पाठक हैं |
जन्म दिवसोत्सव कैसे मनाएँ ?
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जन्मदिवसोत्सव इस तरह मनावें
मनुष्य का जन्म भगवान का सबसे बड़ा उपहार है। सृष्टि में लाखों, करोड़ों
योनियाँ हैं, धरती पर रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले और जल में निवास
करने वाले अगणित प्रकार के पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जीव -जन्तु इस संसार में
रहते हैं। उनमें से किसी को भी वे सुविधाएं नहीं मिली जो मानव प्राणी को
प्राप्त है। व्यवस्थित रीति से बोलने और सुसंगत रूप से सोचने की क्षमता
मनुष्य के अतिरिक्त और किसी को नहीं मिली है। शरीर यात्रा की समस्या को
सुलझाने में ही अन्य प्राणी अपना समस्त जीवन व्यतीत करते हैं, फिर भी आहार
निवास सुरक्षा की उलझनें बनी रहती हैं। समाज में पारस्परिक सहयोग से भी
उन्हें वंचित रहना पड़ता है।
चिकित्सा, वाहन, मनोरंजन, न्याय, गृहस्थ, वस्त्र, उपार्जन आदि की सुविधायें उन्हें उपलब्ध कहाँ हैं ? अनेकों प्रकार की जो सुविधा सामग्री मनुष्य को प्राप्त हैं, वे उन बेचारों के भाग्य में कहाँ है ? बुद्धि का विकास न होने से विचारणा एवं भावना क्षेत्र में मिल सकने वाले उल्लास-आन्नदों से तो एक प्रकार से वंचित ही है। उनकी तुलना में मनुष्य कितना अधिक सुखी और साधन सम्पन्न है इस पर बारीकी से विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि भगवान ने हमें सृष्टि का सर्वोंच्च प्राणी बनाया है और सर्वोंपरि साधन-सुविधायें प्रदान की है।
मनुष्य की तुलना में देवताओं की क्षमता और सुविधा बढ़ी-‘चढ़ी मानी जाती है। धरती की तुलना में स्वर्ग में आनन्द-उल्लास के साधन अधिक हैं। इस मान्यता के कारण मनुष्य की लालसा यही बनी रहती है कि उसे इस जन्म के बाद देवयोनि प्राप्त हो, स्वर्ग में जाने का अवसर मिले। देवताओं जैसा, स्वर्ग जैसा आनन्द इस धरती के मनुष्यों को प्राप्त नहीं, इसलिए अधिक सुखी बनने की स्वाभाविक इच्छा के अनुरूप यह सोचना उचित ही है कि हमें स्वर्गीय जीवन जीने का अवसर मिले। जिस प्रकार स्वर्ग-सुख की बात सोचकर हमारे मुँह में पानी भर आता है, उसी प्रकार सृष्टि के अन्य समस्त प्राणी यदि सोच सकते होंगे तो यही सोचते होंगे कि अभी हमें भी मनुष्य बनने का और उसे जो सुविधायें प्राप्त हैं, उन्हें उपभोग करने का अवसर मिले। सचमुच सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य जीवन के सुख का मूल्यांकन किया जाए तो उससे कहीं अधिक अन्तक मिलेगा जितना मनुष्य और देवताओं के बीच है। देवता तो शरीर की दृष्टि से लगभग मनुष्यों के स्तर के ही माने जाते है, उन्हें केवल कुछ सुविधा-साधन अधिक प्राप्त हैं। परन्तु कीट-पतंगों और तुच्छ जीवों की तुलना में मनुष्य जीवन का अन्तर बहुत अधिक है। इसलिए किसी अन्य योनि के प्राणी को यदि मनुष्य योनि मिले तो। उसे जो अधिक आनन्द मिलेगा वह मनुष्य के स्वर्ग पहुँचने और देवता बनने के आनन्द वह मनुष्य के स्वर्ग पहुँचने और देवता बनने के आन्नद से लाखों-करोड़ों गुना अधिक होगा। वह जीव मनुष्य योनि में प्रवेश करते ही अपने सौभाग्य की इतनी अधिक सराहना करेगा जो हमें स्वर्ग मिलने कि तुलना में निश्चय ही अप्रत्याशित रूप से अधिक होगी।
यों छुट-पट अभाव, सुविधायें और कठिनाइयाँ मनुष्य जीवन में भी बनी रहती हैं और कितने ही मनुष्य उस तिल को ताड़ बनाकर निरन्तर दुःखी भी बने रहते हैं। इतने पर भी यदि विशाल दृष्टि से सोचा -देखा जाए तो प्रतीत होगा कि दुःखी-दरिद्री समझा जाने वाला व्यक्ति भी अन्य-जीव जन्तुओं की तुलना में अधिक सुखी है। यही कारण है कि हमें मरने से डर लगता है। मरने के बाद पथ-भ्रस्ट मनुष्य को जिन योनियों में जाना पड़ता है, उसकी तुलना में दुखी से दुःखी मनुष्य भी अधिक सुखी है। इसी से हम अपने को अत्यधिक प्यार करते हैं और वयोबद्ध, अशक्त एवं रुग्ण होने पर भी मरने की बात नहीं सोचते।
आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने का बाद मिलता है। यह उसकी परीक्षा का समय होता है। वह ऊंचा उठने, आगे बढ़ने और अधिक ऊँची स्थिति में पहुँच सकने लायक है या नहीं, इसी बात की परीक्षा देने के लिए जीव मनुष्य शरीर में आता है। यदि इस परीक्षा में सफल हुआ तो उसे आगे की उच्च स्थिति-स्वर्गादपि देव योनि प्राप्त करने का अवसर मिलता है अन्यथा वह फिर पुरानी कक्षा में वापिस लौटा दिया जाता है।
हवाई जहाज चलाने की ‘पायलेट’ परीक्षा के समय किसी उड़ाके के हाथ में जहाज सौंपा जाता है, वह उड़ान करके दिखाता है। यदि सही काम कर सका तो उसे आगे भी जहाज उड़ाने की नौकरी मिल जाती है। अनुत्तीर्ण होने पर वह जहाज छीन लिया जाता है जो उड़ान करने के समय मिला था, फिर उसे उसी कक्षा में वापस चला जाना पड़ता है जिसमें पायलेट बनने की शिक्षा दी जाती है। ठीक इसी प्रकार अन्य योनियों की कक्षाएं है, जिसमें लम्बी अवधि तक जीव को पढ़ना पड़ता है परीक्षा काल की तरह-चन्द वर्षों का मानव जीवन मिलता है। भगवान उसकी प्रत्येक गतिविधि को ब़ड़े ध्यान से देखता है, उसकी विचारणा और क्रिया पद्धति को परखता है। इसी आधार पर वह नम्बर देता चलता है। यह नम्बर यदि उत्तीर्ण होने के योग्य होते है। तो उसे आगे बढ़ने की अधिक ऊँची स्थिति प्राप्त करने की सुविधा मिलती है अन्यथा अनुत्तीर्ण होने पर उसे उसी पिछली कक्षा में अधिक अभ्यास करने के लिए वापस भेज देता है। नीच योनियों में धकेल देता है।
संसार का एक निश्चित नियम यह है कि जैसे-जैसे स्तर उठता है, पदोन्नति होती है, वैसे-वैसे ही उसके कन्धों पर जिम्मेदारी अधिक आती है। चपरासी की तुलना में अफसर की, सैनिक की तुलना में कप्तान की, बच्चे की तुलना में प्रौढ़ की, नागरिक की तुलना में नेता की, पशु की तुलना में मनुष्य की जिम्मेदारी अधिक है। पदोन्नति का आधार ही अधिक उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता है। पशु कोई नैतिक एवं सामाजिक मर्यादा पालन करने के लिए बाध्य नहीं, वे नंग-धड़ंग फिरते हैं, अश्लील चेष्टायें खुले आम करते हैं, पराई वस्तु को खाने में संकोच नहीं करते, पर मनुष्य को इस प्रकार का व्यवहार करने की छूट नहीं है। विद्यार्थी की उच्छृंखलता उपेक्षणीय हो सकती है, पर यदि प्राध्यापक लोग वैसी अनुशासनहीनता बरतें तो यह बहुत बुरी बात होगी। मनुष्य जिस प्रक्रार की संकीर्णता और स्वार्थपरता बरतते हैं वैसे ही यदि इन्द्र, वरुण, वायु, अग्नि सूर्य, चन्द्र आदि बरतने लगें तो इस सृष्टि का क्रम क्षण भर में अस्त-व्यस्त हो जाय। बड़प्पन निश्चय ही एक बड़ी जिम्मेदारी लेकर आता है और उसमें थोड़ी सी भी भूल बड़ी घातक सिद्ध होती है। नेताओं की भूले उसके अपने सीमित क्षेत्र में ही दुष्परिणाम उत्पन्न करती हैं। इसलिए बड़ों की छोटी गलतियाँ भी उन्हें भारी दण्ड भोगने की स्थिति में पहुँचा देती है। फौजी कप्तान छोटी-सी लापरवाही करने पर गोली से उड़ा दिया जाता है। गलती करने वाले शासक दुष्टाओं की भी ऐसी दुर्गति होती है।
हमें अपनी वास्तविक स्थिति समझनी चाहिए। बुद्धिमान समझे जान वाले मनुष्यों की सबसे बड़ी मूर्खता यही एक है कि वह अपनी वस्तुस्थिति समझने में भूल करता रहता है। विचारने की बात है कि जब सभी प्राणी भगवान के पुत्र हैं, सबका पिता है-सब को समान प्यार करता है-न्यायकारी, निष्पक्ष और समदर्शी है, तो फिर मनुष्य को अधिक सुविधायें क्यों दीं ? जब कि सृष्टि के अन्य समस्त प्राणी वंचित हैं। कोई मनुष्य पिता जब अपने बच्चों को लगभग समान सुविधा देता है तब भगवान अपनी सन्तान को ऐसी स्थितियों में क्यों रखता, जिसमें जमीन-आसमान का अन्तर है ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए बैंक चपरासी तथा बैंक मैनेजर की स्थिति को समझना होगा। मैनेजर को बैंक अधिक वेतन और अधिक सुविधायें इसलिए देती है ताकि वह अधिक बड़ी जिम्मेदारी को ठीक तरह से निवाह सके। लाखों रुपया बैंक मैनेजर के दस्तखतों से क्षण भर में इधर-उधर हो सकता है पर अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह निवाहने की योग्यता सिद्ध करता है, इसी से ऊँचा पद एवं ऊँचा वेतन प्राप्त करता है। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट, कलक्टर आदि अफसरों के हाथ में बड़े अधिकार रहते हैं। वे उन अधिकारों को स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए स्वच्छन्दतापूर्ण उपयोग लगें तो संकट उत्पन्न हो जाय। बैंक मैनेजर सारे खजाने को अपनी निज की सम्पत्ति मान ले और उसे स्वच्छन्दतापूर्वक खर्च कर डाले तो मुसीबत खड़ी हो जाय।
मोटी दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि बैंक संचालकों ने चपरासी के हाथ में एक छोटा-सा हथियार थमा दिया और मैनेजर के हाथ में लाखों रुपयों से भरे खजाने की चाबी दे दी। यह अन्याय और पक्षपात हुआ पर बारीकी से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि इसमें अन्याय जैसी कोई बात नहीं है। जो जिम्मेदारियाँ उनके कन्धों पर हैं, उन्हीं की पूर्ति के लिए अधिकार मिले हैं। इन अधिकारों को अपने निज के उपयोग करने की छूट उन्हें नहीं मिले हैं, वे विशुद्ध रूप से जनहितं के लिए ही है। निर्धारित वेतन से अधिक मात्रा में कोई बैंक मैनेजर अपने अधिकार के खजाने में से खर्च करने लगे तो उसे न्यायालय द्वारा कठोर दण्ड का भागी बनना पड़ेगा।
चिकित्सा, वाहन, मनोरंजन, न्याय, गृहस्थ, वस्त्र, उपार्जन आदि की सुविधायें उन्हें उपलब्ध कहाँ हैं ? अनेकों प्रकार की जो सुविधा सामग्री मनुष्य को प्राप्त हैं, वे उन बेचारों के भाग्य में कहाँ है ? बुद्धि का विकास न होने से विचारणा एवं भावना क्षेत्र में मिल सकने वाले उल्लास-आन्नदों से तो एक प्रकार से वंचित ही है। उनकी तुलना में मनुष्य कितना अधिक सुखी और साधन सम्पन्न है इस पर बारीकी से विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि भगवान ने हमें सृष्टि का सर्वोंच्च प्राणी बनाया है और सर्वोंपरि साधन-सुविधायें प्रदान की है।
मनुष्य की तुलना में देवताओं की क्षमता और सुविधा बढ़ी-‘चढ़ी मानी जाती है। धरती की तुलना में स्वर्ग में आनन्द-उल्लास के साधन अधिक हैं। इस मान्यता के कारण मनुष्य की लालसा यही बनी रहती है कि उसे इस जन्म के बाद देवयोनि प्राप्त हो, स्वर्ग में जाने का अवसर मिले। देवताओं जैसा, स्वर्ग जैसा आनन्द इस धरती के मनुष्यों को प्राप्त नहीं, इसलिए अधिक सुखी बनने की स्वाभाविक इच्छा के अनुरूप यह सोचना उचित ही है कि हमें स्वर्गीय जीवन जीने का अवसर मिले। जिस प्रकार स्वर्ग-सुख की बात सोचकर हमारे मुँह में पानी भर आता है, उसी प्रकार सृष्टि के अन्य समस्त प्राणी यदि सोच सकते होंगे तो यही सोचते होंगे कि अभी हमें भी मनुष्य बनने का और उसे जो सुविधायें प्राप्त हैं, उन्हें उपभोग करने का अवसर मिले। सचमुच सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य जीवन के सुख का मूल्यांकन किया जाए तो उससे कहीं अधिक अन्तक मिलेगा जितना मनुष्य और देवताओं के बीच है। देवता तो शरीर की दृष्टि से लगभग मनुष्यों के स्तर के ही माने जाते है, उन्हें केवल कुछ सुविधा-साधन अधिक प्राप्त हैं। परन्तु कीट-पतंगों और तुच्छ जीवों की तुलना में मनुष्य जीवन का अन्तर बहुत अधिक है। इसलिए किसी अन्य योनि के प्राणी को यदि मनुष्य योनि मिले तो। उसे जो अधिक आनन्द मिलेगा वह मनुष्य के स्वर्ग पहुँचने और देवता बनने के आनन्द वह मनुष्य के स्वर्ग पहुँचने और देवता बनने के आन्नद से लाखों-करोड़ों गुना अधिक होगा। वह जीव मनुष्य योनि में प्रवेश करते ही अपने सौभाग्य की इतनी अधिक सराहना करेगा जो हमें स्वर्ग मिलने कि तुलना में निश्चय ही अप्रत्याशित रूप से अधिक होगी।
यों छुट-पट अभाव, सुविधायें और कठिनाइयाँ मनुष्य जीवन में भी बनी रहती हैं और कितने ही मनुष्य उस तिल को ताड़ बनाकर निरन्तर दुःखी भी बने रहते हैं। इतने पर भी यदि विशाल दृष्टि से सोचा -देखा जाए तो प्रतीत होगा कि दुःखी-दरिद्री समझा जाने वाला व्यक्ति भी अन्य-जीव जन्तुओं की तुलना में अधिक सुखी है। यही कारण है कि हमें मरने से डर लगता है। मरने के बाद पथ-भ्रस्ट मनुष्य को जिन योनियों में जाना पड़ता है, उसकी तुलना में दुखी से दुःखी मनुष्य भी अधिक सुखी है। इसी से हम अपने को अत्यधिक प्यार करते हैं और वयोबद्ध, अशक्त एवं रुग्ण होने पर भी मरने की बात नहीं सोचते।
आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने का बाद मिलता है। यह उसकी परीक्षा का समय होता है। वह ऊंचा उठने, आगे बढ़ने और अधिक ऊँची स्थिति में पहुँच सकने लायक है या नहीं, इसी बात की परीक्षा देने के लिए जीव मनुष्य शरीर में आता है। यदि इस परीक्षा में सफल हुआ तो उसे आगे की उच्च स्थिति-स्वर्गादपि देव योनि प्राप्त करने का अवसर मिलता है अन्यथा वह फिर पुरानी कक्षा में वापिस लौटा दिया जाता है।
हवाई जहाज चलाने की ‘पायलेट’ परीक्षा के समय किसी उड़ाके के हाथ में जहाज सौंपा जाता है, वह उड़ान करके दिखाता है। यदि सही काम कर सका तो उसे आगे भी जहाज उड़ाने की नौकरी मिल जाती है। अनुत्तीर्ण होने पर वह जहाज छीन लिया जाता है जो उड़ान करने के समय मिला था, फिर उसे उसी कक्षा में वापस चला जाना पड़ता है जिसमें पायलेट बनने की शिक्षा दी जाती है। ठीक इसी प्रकार अन्य योनियों की कक्षाएं है, जिसमें लम्बी अवधि तक जीव को पढ़ना पड़ता है परीक्षा काल की तरह-चन्द वर्षों का मानव जीवन मिलता है। भगवान उसकी प्रत्येक गतिविधि को ब़ड़े ध्यान से देखता है, उसकी विचारणा और क्रिया पद्धति को परखता है। इसी आधार पर वह नम्बर देता चलता है। यह नम्बर यदि उत्तीर्ण होने के योग्य होते है। तो उसे आगे बढ़ने की अधिक ऊँची स्थिति प्राप्त करने की सुविधा मिलती है अन्यथा अनुत्तीर्ण होने पर उसे उसी पिछली कक्षा में अधिक अभ्यास करने के लिए वापस भेज देता है। नीच योनियों में धकेल देता है।
संसार का एक निश्चित नियम यह है कि जैसे-जैसे स्तर उठता है, पदोन्नति होती है, वैसे-वैसे ही उसके कन्धों पर जिम्मेदारी अधिक आती है। चपरासी की तुलना में अफसर की, सैनिक की तुलना में कप्तान की, बच्चे की तुलना में प्रौढ़ की, नागरिक की तुलना में नेता की, पशु की तुलना में मनुष्य की जिम्मेदारी अधिक है। पदोन्नति का आधार ही अधिक उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता है। पशु कोई नैतिक एवं सामाजिक मर्यादा पालन करने के लिए बाध्य नहीं, वे नंग-धड़ंग फिरते हैं, अश्लील चेष्टायें खुले आम करते हैं, पराई वस्तु को खाने में संकोच नहीं करते, पर मनुष्य को इस प्रकार का व्यवहार करने की छूट नहीं है। विद्यार्थी की उच्छृंखलता उपेक्षणीय हो सकती है, पर यदि प्राध्यापक लोग वैसी अनुशासनहीनता बरतें तो यह बहुत बुरी बात होगी। मनुष्य जिस प्रक्रार की संकीर्णता और स्वार्थपरता बरतते हैं वैसे ही यदि इन्द्र, वरुण, वायु, अग्नि सूर्य, चन्द्र आदि बरतने लगें तो इस सृष्टि का क्रम क्षण भर में अस्त-व्यस्त हो जाय। बड़प्पन निश्चय ही एक बड़ी जिम्मेदारी लेकर आता है और उसमें थोड़ी सी भी भूल बड़ी घातक सिद्ध होती है। नेताओं की भूले उसके अपने सीमित क्षेत्र में ही दुष्परिणाम उत्पन्न करती हैं। इसलिए बड़ों की छोटी गलतियाँ भी उन्हें भारी दण्ड भोगने की स्थिति में पहुँचा देती है। फौजी कप्तान छोटी-सी लापरवाही करने पर गोली से उड़ा दिया जाता है। गलती करने वाले शासक दुष्टाओं की भी ऐसी दुर्गति होती है।
हमें अपनी वास्तविक स्थिति समझनी चाहिए। बुद्धिमान समझे जान वाले मनुष्यों की सबसे बड़ी मूर्खता यही एक है कि वह अपनी वस्तुस्थिति समझने में भूल करता रहता है। विचारने की बात है कि जब सभी प्राणी भगवान के पुत्र हैं, सबका पिता है-सब को समान प्यार करता है-न्यायकारी, निष्पक्ष और समदर्शी है, तो फिर मनुष्य को अधिक सुविधायें क्यों दीं ? जब कि सृष्टि के अन्य समस्त प्राणी वंचित हैं। कोई मनुष्य पिता जब अपने बच्चों को लगभग समान सुविधा देता है तब भगवान अपनी सन्तान को ऐसी स्थितियों में क्यों रखता, जिसमें जमीन-आसमान का अन्तर है ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए बैंक चपरासी तथा बैंक मैनेजर की स्थिति को समझना होगा। मैनेजर को बैंक अधिक वेतन और अधिक सुविधायें इसलिए देती है ताकि वह अधिक बड़ी जिम्मेदारी को ठीक तरह से निवाह सके। लाखों रुपया बैंक मैनेजर के दस्तखतों से क्षण भर में इधर-उधर हो सकता है पर अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह निवाहने की योग्यता सिद्ध करता है, इसी से ऊँचा पद एवं ऊँचा वेतन प्राप्त करता है। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट, कलक्टर आदि अफसरों के हाथ में बड़े अधिकार रहते हैं। वे उन अधिकारों को स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए स्वच्छन्दतापूर्ण उपयोग लगें तो संकट उत्पन्न हो जाय। बैंक मैनेजर सारे खजाने को अपनी निज की सम्पत्ति मान ले और उसे स्वच्छन्दतापूर्वक खर्च कर डाले तो मुसीबत खड़ी हो जाय।
मोटी दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि बैंक संचालकों ने चपरासी के हाथ में एक छोटा-सा हथियार थमा दिया और मैनेजर के हाथ में लाखों रुपयों से भरे खजाने की चाबी दे दी। यह अन्याय और पक्षपात हुआ पर बारीकी से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि इसमें अन्याय जैसी कोई बात नहीं है। जो जिम्मेदारियाँ उनके कन्धों पर हैं, उन्हीं की पूर्ति के लिए अधिकार मिले हैं। इन अधिकारों को अपने निज के उपयोग करने की छूट उन्हें नहीं मिले हैं, वे विशुद्ध रूप से जनहितं के लिए ही है। निर्धारित वेतन से अधिक मात्रा में कोई बैंक मैनेजर अपने अधिकार के खजाने में से खर्च करने लगे तो उसे न्यायालय द्वारा कठोर दण्ड का भागी बनना पड़ेगा।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book